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मनुष्यको कुरा के छ पशुपक्षी पनी सब। | मनुष्यको कुरा के छ पशुपक्षी पनी सब। | ||
मनाउँछन् खुशी मानी मञ्जु मङ्गल उत्सव।। | मनाउँछन् खुशी मानी मञ्जु मङ्गल उत्सव।। | ||
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आनन्दको ध्वजातुल्य ठड्याई दीर्घ पुच्छर। | आनन्दको ध्वजातुल्य ठड्याई दीर्घ पुच्छर। | ||
बाच्छाबाच्छी सिँगारेका दौडन्छन् ती सबैतिर।। | बाच्छाबाच्छी सिँगारेका दौडन्छन् ती सबैतिर।। | ||
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यताउति कतै केही नहेरी मस्त भैकन। | यताउति कतै केही नहेरी मस्त भैकन। | ||
विजयी वीर झैं गर्वी थाले गोपति ढल्कन।। | विजयी वीर झैं गर्वी थाले गोपति ढल्कन।। | ||
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योगीको मन झैं पानी, बाटो वेदपथैसरी। | योगीको मन झैं पानी, बाटो वेदपथैसरी। | ||
शुद्ध देखिन्छ सम्पूर्ण शरत्का सङ्गले गरी।। | शुद्ध देखिन्छ सम्पूर्ण शरत्का सङ्गले गरी।। | ||
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हुनत अति उज्यालो हो शरत्काल खास | हुनत अति उज्यालो हो शरत्काल खास | ||
तर अलि कवितामा कम्ति नै भो प्रकाश। | तर अलि कवितामा कम्ति नै भो प्रकाश। | ||
रसिक गरनुहोला तैपनी दृष्टिपात | रसिक गरनुहोला तैपनी दृष्टिपात | ||
श्रम सब बुझि मेरो भन्छ यो लेखनाथ।। | श्रम सब बुझि मेरो भन्छ यो लेखनाथ।। | ||
{{pcn|'''इति शरद्-विचार'''}} | |||
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Revision as of 09:26, 9 April 2025
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मनुष्यको कुरा के छ पशुपक्षी पनी सब।
मनाउँछन् खुशी मानी मञ्जु मङ्गल उत्सव।।
आनन्दको ध्वजातुल्य ठड्याई दीर्घ पुच्छर।
बाच्छाबाच्छी सिँगारेका दौडन्छन् ती सबैतिर।।
यताउति कतै केही नहेरी मस्त भैकन।
विजयी वीर झैं गर्वी थाले गोपति ढल्कन।।
योगीको मन झैं पानी, बाटो वेदपथैसरी।
शुद्ध देखिन्छ सम्पूर्ण शरत्का सङ्गले गरी।।
हुनत अति उज्यालो हो शरत्काल खास
तर अलि कवितामा कम्ति नै भो प्रकाश।
रसिक गरनुहोला तैपनी दृष्टिपात
श्रम सब बुझि मेरो भन्छ यो लेखनाथ।।
इति शरद्-विचार