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→Not proofread: Created page with " घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा सधैं। संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य झैं।। ५२ हिमालका नदीभित्र हिमको त्यो कडापन। भरिनाले सबै लागे हिम झैं गँगर्याउन।। ५३ त्रिशूली, कौशिका,..." |
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घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा सधैं। | घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा सधैं। | ||
संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य झैं।। | संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य झैं।। | ||
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हिमालका नदीभित्र हिमको त्यो कडापन। | हिमालका नदीभित्र हिमको त्यो कडापन। | ||
भरिनाले सबै लागे हिम झैं गँगर्याउन।। | भरिनाले सबै लागे हिम झैं गँगर्याउन।। | ||
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त्रिशूली, कौशिका, कृष्णागण्डकीहरुले शिर। | त्रिशूली, कौशिका, कृष्णागण्डकीहरुले शिर। | ||
लुकाये हिमको घुम्टो हाली टम्म उँभोतिर?।। | लुकाये हिमको घुम्टो हाली टम्म उँभोतिर?।। | ||
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थिचँदैछ तुषाराले सारा कमलको वन। | थिचँदैछ तुषाराले सारा कमलको वन। | ||
नयाँ विचारधाराले धर्मजस्तै सनातन।। | नयाँ विचारधाराले धर्मजस्तै सनातन।। | ||
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पद्मपत्र सडे सारा हिलामा ती कठैबरी। | पद्मपत्र सडे सारा हिलामा ती कठैबरी। | ||
गुणग्राही नपायेर मिल्कियेका गुणीसरी।। | गुणग्राही नपायेर मिल्कियेका गुणीसरी।। | ||
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उस्तो जनमनोहारी भरिलो पद्मसंहति। | उस्तो जनमनोहारी भरिलो पद्मसंहति। | ||
डण्ठी शेष हुनू आजै धिक्कार विधिको गति।। | डण्ठी शेष हुनू आजै धिक्कार विधिको गति।। | ||
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नपारी बाहिरी ताप देखाई शीतलोपन। | नपारी बाहिरी ताप देखाई शीतलोपन। | ||
कठै शिशिरले साह्रै शुकायो रसिलो वन।। | कठै शिशिरले साह्रै शुकायो रसिलो वन।। | ||
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खडाखडै सबै सिट्ठी बने तेसै वनस्पति। | खडाखडै सबै सिट्ठी बने तेसै वनस्पति। | ||
प्रमेहरोग लागेका रोगी झैं लागने अति।। | प्रमेहरोग लागेका रोगी झैं लागने अति।। | ||
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न ता वृक्षविषे पात, न ता झार कतै रति। | न ता वृक्षविषे पात, न ता झार कतै रति। | ||
जता हेर्यो उतै खाली उराठै लागने अति।। | जता हेर्यो उतै खाली उराठै लागने अति।। | ||
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Revision as of 09:39, 9 April 2025
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घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा सधैं।
संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य झैं।।
हिमालका नदीभित्र हिमको त्यो कडापन।
भरिनाले सबै लागे हिम झैं गँगर्याउन।।
त्रिशूली, कौशिका, कृष्णागण्डकीहरुले शिर।
लुकाये हिमको घुम्टो हाली टम्म उँभोतिर?।।
थिचँदैछ तुषाराले सारा कमलको वन।
नयाँ विचारधाराले धर्मजस्तै सनातन।।
पद्मपत्र सडे सारा हिलामा ती कठैबरी।
गुणग्राही नपायेर मिल्कियेका गुणीसरी।।
उस्तो जनमनोहारी भरिलो पद्मसंहति।
डण्ठी शेष हुनू आजै धिक्कार विधिको गति।।
नपारी बाहिरी ताप देखाई शीतलोपन।
कठै शिशिरले साह्रै शुकायो रसिलो वन।।
खडाखडै सबै सिट्ठी बने तेसै वनस्पति।
प्रमेहरोग लागेका रोगी झैं लागने अति।।
न ता वृक्षविषे पात, न ता झार कतै रति।
जता हेर्यो उतै खाली उराठै लागने अति।।