Page:Ritubichar.pdf/72: Difference between revisions
Appearance
No edit summary |
|||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Page status | Page status | ||
- | + | Validated | |
Page body (to be transcluded): | Page body (to be transcluded): | ||
Line 2: | Line 2: | ||
<poem> | <poem> | ||
{{pcn|५२}} | {{pcn|५२}} | ||
घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा | घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा सधैँ । | ||
संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य | संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य झैँ ॥ | ||
{{pcn|५३}} | {{pcn|५३}} | ||
हिमालका | हिमालका नदी-भित्र हिमको त्यो कडा-पन । | ||
भरिनाले सबै लागे हिम | भरिनाले सबै लागे हिम झैँ गँगर्याउन ॥ | ||
{{pcn|५४}} | {{pcn|५४}} | ||
त्रिशूली, कौशिका, | त्रिशूली, कौशिका, कृष्णा-गण्डकीहरुले शिर । | ||
लुकाये हिमको घुम्टो हाली टम्म | लुकाये हिमको घुम्टो हाली टम्म उँभो-तिर ? | ||
{{pcn|५५}} | {{pcn|५५}} | ||
थिचँदैछ तुषाराले सारा कमलको वन । | थिचँदैछ तुषाराले सारा कमलको वन । | ||
नयाँ | नयाँ विचार-धाराले धर्मजस्तै सनातन ॥ | ||
{{pcn|५६}} | {{pcn|५६}} | ||
पद्म-पत्र सडे सारा हिलामा ती कठैबरी । | |||
गुणग्राही नपायेर मिल्कियेका | गुणग्राही नपायेर मिल्कियेका गुणी-सरी ॥ | ||
{{pcn|५७}} | {{pcn|५७}} | ||
उस्तो | उस्तो जन-मनोहारी भरिलो पद्म-संहति । | ||
डण्ठी शेष हुनू आजै धिक्कार विधिको गति ॥ | डण्ठी शेष हुनू आजै धिक्कार विधिको गति ॥ | ||
{{pcn|५८}} | {{pcn|५८}} | ||
नपारी बाहिरी ताप देखाई | नपारी बाहिरी ताप देखाई शीतलो-पन । | ||
कठै शिशिरले साह्रै शुकायो रसिलो वन ॥ | कठै ! शिशिरले साह्रै शुकायो रसिलो वन ॥ | ||
{{pcn|५९}} | {{pcn|५९}} | ||
खडा-खडै सबै सिट्ठी बने तेसै वनस्पति । | |||
प्रमेह-रोग लागेका रोगी झैँ लागने अति ॥ | |||
{{pcn|६०}} | {{pcn|६०}} | ||
न ता | न ता वृक्ष-विषे पात, न ता झार कतै रति । | ||
जता | जता हेर्यो उतै खाली उराठै लागने अति ॥ | ||
</poem> | </poem> | ||
<noinclude>{{end center block}}</noinclude> | <noinclude>{{end center block}}</noinclude> |
Latest revision as of 18:54, 25 May 2025
This page has been validated
५२
घर्केको हिम रेलिन्छ नदीका स्रोतमा सधैँ ।
संसारी जीवको सारा बुद्धिमा भवितव्य झैँ ॥
५३
हिमालका नदी-भित्र हिमको त्यो कडा-पन ।
भरिनाले सबै लागे हिम झैँ गँगर्याउन ॥
५४
त्रिशूली, कौशिका, कृष्णा-गण्डकीहरुले शिर ।
लुकाये हिमको घुम्टो हाली टम्म उँभो-तिर ?
५५
थिचँदैछ तुषाराले सारा कमलको वन ।
नयाँ विचार-धाराले धर्मजस्तै सनातन ॥
५६
पद्म-पत्र सडे सारा हिलामा ती कठैबरी ।
गुणग्राही नपायेर मिल्कियेका गुणी-सरी ॥
५७
उस्तो जन-मनोहारी भरिलो पद्म-संहति ।
डण्ठी शेष हुनू आजै धिक्कार विधिको गति ॥
५८
नपारी बाहिरी ताप देखाई शीतलो-पन ।
कठै ! शिशिरले साह्रै शुकायो रसिलो वन ॥
५९
खडा-खडै सबै सिट्ठी बने तेसै वनस्पति ।
प्रमेह-रोग लागेका रोगी झैँ लागने अति ॥
६०
न ता वृक्ष-विषे पात, न ता झार कतै रति ।
जता हेर्यो उतै खाली उराठै लागने अति ॥