Page:Ritubichar.pdf/34: Difference between revisions
No edit summary |
|||
Page status | Page status | ||
- | + | Proofread | |
Page body (to be transcluded): | Page body (to be transcluded): | ||
Line 6: | Line 6: | ||
{{pcn|३५}} | {{pcn|३५}} | ||
घरी दरदराऽऽकार घरी सुस्तै | घरी दरदराऽऽकार घरी सुस्तै सिमी-सिमी । | ||
जल-वर्षा लगातार गर्छ मेघ घुमी घुमी ॥ | |||
{{pcn|३६}} | {{pcn|३६}} | ||
चिरिन्छन् | चिरिन्छन् जल-धाराले नलिनी-पत्र चर्चरी । | ||
दुर्वाच्य-वाण-वर्षाले साधुको हृदयै-सरी ॥ | |||
{{pcn|३७}} | {{pcn|३७}} | ||
दिन रात दुवै कालो पारी धुम्धुमियो झरी । | दिन रात दुवै कालो पारी धुम्धुमियो झरी । | ||
मुख-पेट दुवै मैला भयेको दुर्जनै-सरी ॥ | |||
{{pcn|३८}} | {{pcn|३८}} | ||
झरीले | झरीले छोपि-राखेका वर्षाका दिन छन् सब । | ||
अविद्याले अँठ्यायेका | अविद्याले अँठ्यायेका जीव-तुल्य गत-प्रभ ॥ | ||
{{pcn|३९}} | {{pcn|३९}} | ||
अँध्यारो दिन देखेर चखेवी बिचरी चरी । | अँध्यारो दिन देखेर चखेवी बिचरी चरी । | ||
रुन्छे | रुन्छे व्याकुलता-साथ रात्रिको भ्रान्तिमा परी ॥ | ||
{{pcn|४०}} | {{pcn|४०}} | ||
जल-वर्षा गरी मेघ तृप्त छैन कुनै दिन । | |||
दाता देह छँदासम्म के गर्ला | दाता देह छँदासम्म के गर्ला मुष्टि-बन्धन ? | ||
{{pcn|४१}} | {{pcn|४१}} | ||
यताउता कतै कत्ति डग्दैन | यताउता कतै कत्ति डग्दैन घन-मण्डल । | ||
लब्ध-भूमि महात्माको चित्त झैं अति-निश्चल ॥ | |||
{{pcn|४२}} | {{pcn|४२}} | ||
कहाँ सूर्य, कहाँ तारा, कहाँ | कहाँ सूर्य, कहाँ तारा, कहाँ नक्षत्र-नायक । | ||
देखिन्छन् कालले गर्दा जुन्किरी नै झकाझक ॥ | देखिन्छन् कालले गर्दा जुन्किरी नै झकाझक ॥ | ||
</poem> | </poem> | ||
<noinclude>{{end center block}}</noinclude> | <noinclude>{{end center block}}</noinclude> |
Revision as of 17:25, 20 May 2025
३४
पवित्र परमात्माको भक्तिमा सत्य भक्त झैं ।
शीतला जलधारामा भिजेको छ प्रजा सधैं ॥
३५
घरी दरदराऽऽकार घरी सुस्तै सिमी-सिमी ।
जल-वर्षा लगातार गर्छ मेघ घुमी घुमी ॥
३६
चिरिन्छन् जल-धाराले नलिनी-पत्र चर्चरी ।
दुर्वाच्य-वाण-वर्षाले साधुको हृदयै-सरी ॥
३७
दिन रात दुवै कालो पारी धुम्धुमियो झरी ।
मुख-पेट दुवै मैला भयेको दुर्जनै-सरी ॥
३८
झरीले छोपि-राखेका वर्षाका दिन छन् सब ।
अविद्याले अँठ्यायेका जीव-तुल्य गत-प्रभ ॥
३९
अँध्यारो दिन देखेर चखेवी बिचरी चरी ।
रुन्छे व्याकुलता-साथ रात्रिको भ्रान्तिमा परी ॥
४०
जल-वर्षा गरी मेघ तृप्त छैन कुनै दिन ।
दाता देह छँदासम्म के गर्ला मुष्टि-बन्धन ?
४१
यताउता कतै कत्ति डग्दैन घन-मण्डल ।
लब्ध-भूमि महात्माको चित्त झैं अति-निश्चल ॥
४२
कहाँ सूर्य, कहाँ तारा, कहाँ नक्षत्र-नायक ।
देखिन्छन् कालले गर्दा जुन्किरी नै झकाझक ॥