Page:Ritubichar.pdf/61: Difference between revisions
Appearance
No edit summary |
No edit summary |
||
Page body (to be transcluded): | Page body (to be transcluded): | ||
Line 1: | Line 1: | ||
<noinclude>{{start center block}}</noinclude> | <noinclude>{{start center block}}</noinclude> | ||
<poem> | <poem> | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६१}} | ||
फाँडिये कण्टकप्रायः बढेका खर दूषण। | फाँडिये कण्टकप्रायः बढेका खर दूषण। | ||
पियारो भोजनस्थान रह्यो अधमरा वन।। | पियारो भोजनस्थान रह्यो अधमरा वन।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६२}} | ||
रात्रिशूर्पणखा काली अँध्यारो मुख लाउँदै। | रात्रिशूर्पणखा काली अँध्यारो मुख लाउँदै। | ||
हिमरावणका साथ गर्छे मानू कुरा रुँदै।। | हिमरावणका साथ गर्छे मानू कुरा रुँदै।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६३}} | ||
फिँजारेकी छ उसले जगल्टा अन्धकारका। | फिँजारेकी छ उसले जगल्टा अन्धकारका। | ||
शीतका रूपमा हर्दम् खसाल्छे आँशुका ढिका।। | शीतका रूपमा हर्दम् खसाल्छे आँशुका ढिका।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६४}} | ||
मेघनाद छँदैछैन पन्छाईरविभीषण। | मेघनाद छँदैछैन पन्छाईरविभीषण। | ||
रात्रिशूर्पणखाले त्यो जगायी हिमरावण।। | रात्रिशूर्पणखाले त्यो जगायी हिमरावण।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६५}} | ||
पछारिँदामा त्यो रात्रिराक्षसी आयतोदरी। | पछारिँदामा त्यो रात्रिराक्षसी आयतोदरी। | ||
धेरै नै थिचिये राम्रा उज्याला दिनका घरी।। | धेरै नै थिचिये राम्रा उज्याला दिनका घरी।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६६}} | ||
देखिनेबित्तिकै झट्ट दबिन्छ दिन माधुरी। | देखिनेबित्तिकै झट्ट दबिन्छ दिन माधुरी। | ||
दरिद्रको क्षणस्थायी मनको मन्सुबासरी।। | दरिद्रको क्षणस्थायी मनको मन्सुबासरी।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६७}} | ||
उनै सूर्य, उनै पृथ्वी, उही छ किरणाऽऽवली। | उनै सूर्य, उनै पृथ्वी, उही छ किरणाऽऽवली। | ||
कालको गतिले गर्दा राप किन्तु अलीअलि।। | कालको गतिले गर्दा राप किन्तु अलीअलि।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६८}} | ||
फर्काउँछ सिधा पीठ दुनियाँ सूर्यसम्मुख। | फर्काउँछ सिधा पीठ दुनियाँ सूर्यसम्मुख। | ||
हेरला को कठै मन्द गिरेका मित्रको मुख?।। | हेरला को कठै मन्द गिरेका मित्रको मुख?।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|६९}} | ||
तेजस्विता भयेदेखि सूर्यमा क्यै अलीकति। | तेजस्विता भयेदेखि सूर्यमा क्यै अलीकति। | ||
शीतले यसरी लोक काँपदो हो कहाँ यति?।। | शीतले यसरी लोक काँपदो हो कहाँ यति?।। | ||
</poem> | </poem> | ||
<noinclude>{{end center block}}</noinclude> | <noinclude>{{end center block}}</noinclude> |
Revision as of 08:16, 10 April 2025
This page has not been proofread
६१
फाँडिये कण्टकप्रायः बढेका खर दूषण।
पियारो भोजनस्थान रह्यो अधमरा वन।।
६२
रात्रिशूर्पणखा काली अँध्यारो मुख लाउँदै।
हिमरावणका साथ गर्छे मानू कुरा रुँदै।।
६३
फिँजारेकी छ उसले जगल्टा अन्धकारका।
शीतका रूपमा हर्दम् खसाल्छे आँशुका ढिका।।
६४
मेघनाद छँदैछैन पन्छाईरविभीषण।
रात्रिशूर्पणखाले त्यो जगायी हिमरावण।।
६५
पछारिँदामा त्यो रात्रिराक्षसी आयतोदरी।
धेरै नै थिचिये राम्रा उज्याला दिनका घरी।।
६६
देखिनेबित्तिकै झट्ट दबिन्छ दिन माधुरी।
दरिद्रको क्षणस्थायी मनको मन्सुबासरी।।
६७
उनै सूर्य, उनै पृथ्वी, उही छ किरणाऽऽवली।
कालको गतिले गर्दा राप किन्तु अलीअलि।।
६८
फर्काउँछ सिधा पीठ दुनियाँ सूर्यसम्मुख।
हेरला को कठै मन्द गिरेका मित्रको मुख?।।
६९
तेजस्विता भयेदेखि सूर्यमा क्यै अलीकति।
शीतले यसरी लोक काँपदो हो कहाँ यति?।।