Jump to content

Page:Ritubichar.pdf/42: Difference between revisions

From Nepali Proofreaders
No edit summary
Prty (talk | contribs)
No edit summary
Page body (to be transcluded):Page body (to be transcluded):
Line 3: Line 3:
{{start center block}}
{{start center block}}
<poem>
<poem>
{{pcn|}}
{{pcn|}}
गयो बहाड वर्षाको, खडा भो रसिलो शरद्।
गयो बहाड वर्षाको, खडा भो रसिलो शरद्।
अर्कै स्वरूपमा निस्क्यो कविको कल्पना जगत्।।
अर्कै स्वरूपमा निस्क्यो कविको कल्पना जगत्।।


{{pcn|}}
{{pcn|}}
निस्के घनघटा फोरी देखाई भरिलो छवि।
निस्के घनघटा फोरी देखाई भरिलो छवि।
अविद्याजाल तोडेको इलमी राष्ट्र झैं रवि।।
अविद्याजाल तोडेको इलमी राष्ट्र झैं रवि।।


{{pcn|}}
{{pcn|}}
धेरै कालपछी मिल्दा मित्रदर्शनको सुख।
धेरै कालपछी मिल्दा मित्रदर्शनको सुख।
डुब्यो आनन्दमा लोक लगाई हँसिलो मुख।।
डुब्यो आनन्दमा लोक लगाई हँसिलो मुख।।


{{pcn|}}
{{pcn|}}
लोकोपकारमा खर्ची अनन्त जलसम्पति।
लोकोपकारमा खर्ची अनन्त जलसम्पति।
मनस्वी धीर झैं मेध बन्यो शान्त मुनिव्रती।।
मनस्वी धीर झैं मेध बन्यो शान्त मुनिव्रती।।


{{pcn|}}
{{pcn|}}
कहाँ कालो कडा कान्ति, कहाँ गर्जनतर्जन।
कहाँ कालो कडा कान्ति, कहाँ गर्जनतर्जन।
मेघले जलका साथै त्यागेछ सब दुर्गुण।।
मेघले जलका साथै त्यागेछ सब दुर्गुण।।


{{pcn|}}
{{pcn|}}
परोपकारव्रतले गलेका मेघ पावन।
परोपकारव्रतले गलेका मेघ पावन।
प्रतिपच्चन्द्ररेखा झैं देखिन्छन् मनमोहन।।
प्रतिपच्चन्द्ररेखा झैं देखिन्छन् मनमोहन।।
</poem>
</poem>
<noinclude>{{end center block}}</noinclude>
<noinclude>{{end center block}}</noinclude>

Revision as of 08:00, 10 April 2025

This page has not been proofread
अथ
शरद्-विचार


गयो बहाड वर्षाको, खडा भो रसिलो शरद्।
अर्कै स्वरूपमा निस्क्यो कविको कल्पना जगत्।।


निस्के घनघटा फोरी देखाई भरिलो छवि।
अविद्याजाल तोडेको इलमी राष्ट्र झैं रवि।।


धेरै कालपछी मिल्दा मित्रदर्शनको सुख।
डुब्यो आनन्दमा लोक लगाई हँसिलो मुख।।


लोकोपकारमा खर्ची अनन्त जलसम्पति।
मनस्वी धीर झैं मेध बन्यो शान्त मुनिव्रती।।


कहाँ कालो कडा कान्ति, कहाँ गर्जनतर्जन।
मेघले जलका साथै त्यागेछ सब दुर्गुण।।


परोपकारव्रतले गलेका मेघ पावन।
प्रतिपच्चन्द्ररेखा झैं देखिन्छन् मनमोहन।।