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रसले रसिली पारी तातेकी पृथिवीकन। | रसले रसिली पारी तातेकी पृथिवीकन। | ||
नगीचैमा बसी मेघ लाग्यो भारी मजा लिन।। | नगीचैमा बसी मेघ लाग्यो भारी मजा लिन।। | ||
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वर्षन्छ जलको धारा मेघबाट जती जती। | वर्षन्छ जलको धारा मेघबाट जती जती। | ||
विरही जनको छाती शुकदो छ उती उती।। | विरही जनको छाती शुकदो छ उती उती।। | ||
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वर्षंदा जलका धारा मानू मानवजातिका। | वर्षंदा जलका धारा मानू मानवजातिका। | ||
स्वर्गसम्म पुर्यायेका तार झैं छन् जुदा जुदा।। | स्वर्गसम्म पुर्यायेका तार झैं छन् जुदा जुदा।। | ||
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सारा सागरको खार चालने चलनीसरी। | सारा सागरको खार चालने चलनीसरी। | ||
घुमदै स्वादिलो पानी मेघ छर्दछ छर्छरी।। | घुमदै स्वादिलो पानी मेघ छर्दछ छर्छरी।। | ||
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समानै जल सर्वत्र विवेकी मेघले दियो। | समानै जल सर्वत्र विवेकी मेघले दियो। | ||
समदर्शी महात्माको पक्षपात कहाँ थियो?।। | समदर्शी महात्माको पक्षपात कहाँ थियो?।। | ||
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हावाको रूपमा चल्छ जहाँ दुर्भाग्यको बल। | हावाको रूपमा चल्छ जहाँ दुर्भाग्यको बल। | ||
वर्षंदैन उहीं मात्र मेघको जल शीतल।। | वर्षंदैन उहीं मात्र मेघको जल शीतल।। | ||
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कालो भये पनी केही मेघको बाहिरी द्युति। | कालो भये पनी केही मेघको बाहिरी द्युति। | ||
झल्कन्छ चित्तरेखामा भित्र उज्ज्वलता अति।। | झल्कन्छ चित्तरेखामा भित्र उज्ज्वलता अति।। | ||
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विश्वको दुःख देखेर दयाधारी पयोधर। | विश्वको दुःख देखेर दयाधारी पयोधर। | ||
नपग्लेको भयेदेखी के रहन्थ्यो चराऽचर?।। | नपग्लेको भयेदेखी के रहन्थ्यो चराऽचर?।। | ||
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न स्थान, मान चाहन्छ जाति, पाति न गन्दछ। | न स्थान, मान चाहन्छ जाति, पाति न गन्दछ। | ||
जल वर्षाउँदा मेघ मानू ब्रह्मज्ञ बन्दछ।। | जल वर्षाउँदा मेघ मानू ब्रह्मज्ञ बन्दछ।। | ||
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Revision as of 07:50, 10 April 2025
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२५
रसले रसिली पारी तातेकी पृथिवीकन।
नगीचैमा बसी मेघ लाग्यो भारी मजा लिन।।
२६
वर्षन्छ जलको धारा मेघबाट जती जती।
विरही जनको छाती शुकदो छ उती उती।।
२७
वर्षंदा जलका धारा मानू मानवजातिका।
स्वर्गसम्म पुर्यायेका तार झैं छन् जुदा जुदा।।
२८
सारा सागरको खार चालने चलनीसरी।
घुमदै स्वादिलो पानी मेघ छर्दछ छर्छरी।।
२९
समानै जल सर्वत्र विवेकी मेघले दियो।
समदर्शी महात्माको पक्षपात कहाँ थियो?।।
३०
हावाको रूपमा चल्छ जहाँ दुर्भाग्यको बल।
वर्षंदैन उहीं मात्र मेघको जल शीतल।।
३१
कालो भये पनी केही मेघको बाहिरी द्युति।
झल्कन्छ चित्तरेखामा भित्र उज्ज्वलता अति।।
३२
विश्वको दुःख देखेर दयाधारी पयोधर।
नपग्लेको भयेदेखी के रहन्थ्यो चराऽचर?।।
३३
न स्थान, मान चाहन्छ जाति, पाति न गन्दछ।
जल वर्षाउँदा मेघ मानू ब्रह्मज्ञ बन्दछ।।