Page:Ritubichar.pdf/27: Difference between revisions
Appearance
No edit summary |
No edit summary |
||
Page body (to be transcluded): | Page body (to be transcluded): | ||
Line 1: | Line 1: | ||
<noinclude>{{start center block}}</noinclude> | <noinclude>{{start center block}}</noinclude> | ||
<poem> | <poem> | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८०}} | ||
वृष्टि छैन, कडा घाम बढदो छ प्रतिक्षण। | वृष्टि छैन, कडा घाम बढदो छ प्रतिक्षण। | ||
डढेलो उसमा फेरि के रहन्थ्यो कठै वन?।। | डढेलो उसमा फेरि के रहन्थ्यो कठै वन?।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८१}} | ||
डढेलाले डढायेको वन देखिन्छ यो घरी। | डढेलाले डढायेको वन देखिन्छ यो घरी। | ||
नबाबले प्रतापाऽऽग्नि सल्केको भारतैसरी।। | नबाबले प्रतापाऽऽग्नि सल्केको भारतैसरी।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८२}} | ||
उडायो ग्रीष्मले सारा वसन्तकृत गौरव। | उडायो ग्रीष्मले सारा वसन्तकृत गौरव। | ||
नीच पापी दुरात्माले सन्तको कीर्ति झैं सब।। | नीच पापी दुरात्माले सन्तको कीर्ति झैं सब।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८३}} | ||
यौटा गुलाफको पुष्प यस्तो ताप पनी सही। | यौटा गुलाफको पुष्प यस्तो ताप पनी सही। | ||
दुरुस्त अघिको जस्तै फुलेको छ जहाँतहीं।। | दुरुस्त अघिको जस्तै फुलेको छ जहाँतहीं।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८४}} | ||
उपकारी महात्माको चित्त झैं स्वच्छ कोमल। | उपकारी महात्माको चित्त झैं स्वच्छ कोमल। | ||
देखिन्छ भाग्यले यौटा शिरीषतरुमा फुल।। | देखिन्छ भाग्यले यौटा शिरीषतरुमा फुल।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८५}} | ||
गम्भीर जलको भित्री तहमा नडुबीकन। | गम्भीर जलको भित्री तहमा नडुबीकन। | ||
संसारभर पायिन्न आनन्दी शीतलोपन।। | संसारभर पायिन्न आनन्दी शीतलोपन।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८६}} | ||
क्षणिकाऽऽनन्दमा लुब्ध जीव झैं मोहजालमा। | क्षणिकाऽऽनन्दमा लुब्ध जीव झैं मोहजालमा। | ||
जलमा मग्न भै गोता लिन्छन् रसिक हालमा।। | जलमा मग्न भै गोता लिन्छन् रसिक हालमा।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८७}} | ||
निस्कनु दबिनुरूप विश्वक्रमनिदर्शन। | निस्कनु दबिनुरूप विश्वक्रमनिदर्शन। | ||
देखायेर सबै गर्छन् उन्मज्जन निमज्जन।। | देखायेर सबै गर्छन् उन्मज्जन निमज्जन।। | ||
{{pcn|}} | {{pcn|८८}} | ||
देखिन्छन् जलमा पौडी खेलने ती थरीथरी। | देखिन्छन् जलमा पौडी खेलने ती थरीथरी। | ||
दिव्य आनन्दगङ्गाका सजीव लहरीसरी।। | दिव्य आनन्दगङ्गाका सजीव लहरीसरी।। | ||
</poem> | </poem> | ||
<noinclude>{{end center block}}</noinclude> | <noinclude>{{end center block}}</noinclude> |
Revision as of 07:45, 10 April 2025
This page has not been proofread
८०
वृष्टि छैन, कडा घाम बढदो छ प्रतिक्षण।
डढेलो उसमा फेरि के रहन्थ्यो कठै वन?।।
८१
डढेलाले डढायेको वन देखिन्छ यो घरी।
नबाबले प्रतापाऽऽग्नि सल्केको भारतैसरी।।
८२
उडायो ग्रीष्मले सारा वसन्तकृत गौरव।
नीच पापी दुरात्माले सन्तको कीर्ति झैं सब।।
८३
यौटा गुलाफको पुष्प यस्तो ताप पनी सही।
दुरुस्त अघिको जस्तै फुलेको छ जहाँतहीं।।
८४
उपकारी महात्माको चित्त झैं स्वच्छ कोमल।
देखिन्छ भाग्यले यौटा शिरीषतरुमा फुल।।
८५
गम्भीर जलको भित्री तहमा नडुबीकन।
संसारभर पायिन्न आनन्दी शीतलोपन।।
८६
क्षणिकाऽऽनन्दमा लुब्ध जीव झैं मोहजालमा।
जलमा मग्न भै गोता लिन्छन् रसिक हालमा।।
८७
निस्कनु दबिनुरूप विश्वक्रमनिदर्शन।
देखायेर सबै गर्छन् उन्मज्जन निमज्जन।।
८८
देखिन्छन् जलमा पौडी खेलने ती थरीथरी।
दिव्य आनन्दगङ्गाका सजीव लहरीसरी।।