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उच्च, निश्चल, निस्पक्ष, ठिङ्गा वृक्षहरू सबै। | उच्च, निश्चल, निस्पक्ष, ठिङ्गा वृक्षहरू सबै। | ||
देखिन्छन् भोगको तृष्णा त्यागेका अवधूत झैं।। | देखिन्छन् भोगको तृष्णा त्यागेका अवधूत झैं।। | ||
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मरेतुल्य बगैंचाको कुनाकानी अली अलि। | मरेतुल्य बगैंचाको कुनाकानी अली अलि। | ||
देखिये हृदयाऽऽनन्दी रसिला कुन्दका कलि।। | देखिये हृदयाऽऽनन्दी रसिला कुन्दका कलि।। | ||
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कमायें जगतैलाई भनी शिशिर पागल। | कमायें जगतैलाई भनी शिशिर पागल। | ||
खिस्स हाँस्यो कि देखाई दन्त झैं कुन्दकुड्मल?।। | खिस्स हाँस्यो कि देखाई दन्त झैं कुन्दकुड्मल?।। | ||
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दाउरा पातका निम्ति वनभित्र पसीकन। | दाउरा पातका निम्ति वनभित्र पसीकन। | ||
ग्रामीण रमणी थाले शालैज्यू गीत गाउन।। | ग्रामीण रमणी थाले शालैज्यू गीत गाउन।। | ||
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तुषाराले मरेतुल्य बनायेको वनै सब। | तुषाराले मरेतुल्य बनायेको वनै सब। | ||
घन्क्यो घनक्क त्यै गीतप्राणसञ्चारले अब।। | घन्क्यो घनक्क त्यै गीतप्राणसञ्चारले अब।। | ||
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पह्लाये दुइचारोटा कलिला फूलका कलि। | पह्लाये दुइचारोटा कलिला फूलका कलि। | ||
कृत्यको तत्त्व जानेको विज्ञजस्तै अली अलि।। | कृत्यको तत्त्व जानेको विज्ञजस्तै अली अलि।। | ||
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आरू र आलुचा आलूबखडा पुष्पभूषित। | आरू र आलुचा आलूबखडा पुष्पभूषित। | ||
मानू वसन्तका दिव्य दूत झैं छन् उपस्थित।। | मानू वसन्तका दिव्य दूत झैं छन् उपस्थित।। | ||
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लागूजस्तो महाऽऽनन्दी फागुको रङ्गमा परी। | लागूजस्तो महाऽऽनन्दी फागुको रङ्गमा परी। | ||
विलासीजनको वृन्द रमायेको छ बेसरी।। | विलासीजनको वृन्द रमायेको छ बेसरी।। | ||
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काट्यो जगतले जाडो धैर्यशस्त्र लिईकन। | काट्यो जगतले जाडो धैर्यशस्त्र लिईकन। | ||
रङ्गका निहुँले रक्त बहन्थ्यो नत्र यो किन?।। | रङ्गका निहुँले रक्त बहन्थ्यो नत्र यो किन?।। | ||
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Revision as of 09:42, 9 April 2025
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उच्च, निश्चल, निस्पक्ष, ठिङ्गा वृक्षहरू सबै।
देखिन्छन् भोगको तृष्णा त्यागेका अवधूत झैं।।
मरेतुल्य बगैंचाको कुनाकानी अली अलि।
देखिये हृदयाऽऽनन्दी रसिला कुन्दका कलि।।
कमायें जगतैलाई भनी शिशिर पागल।
खिस्स हाँस्यो कि देखाई दन्त झैं कुन्दकुड्मल?।।
दाउरा पातका निम्ति वनभित्र पसीकन।
ग्रामीण रमणी थाले शालैज्यू गीत गाउन।।
तुषाराले मरेतुल्य बनायेको वनै सब।
घन्क्यो घनक्क त्यै गीतप्राणसञ्चारले अब।।
पह्लाये दुइचारोटा कलिला फूलका कलि।
कृत्यको तत्त्व जानेको विज्ञजस्तै अली अलि।।
आरू र आलुचा आलूबखडा पुष्पभूषित।
मानू वसन्तका दिव्य दूत झैं छन् उपस्थित।।
लागूजस्तो महाऽऽनन्दी फागुको रङ्गमा परी।
विलासीजनको वृन्द रमायेको छ बेसरी।।
काट्यो जगतले जाडो धैर्यशस्त्र लिईकन।
रङ्गका निहुँले रक्त बहन्थ्यो नत्र यो किन?।।