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Revision as of 07:55, 17 May 2025
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(४८)
त्रिपुराऽऽन्तक ! नाम नाथको
त्रिपुरै बन्धन यो अनाथको ।
भगवन् ! किन यो नतोडने
प्रभुकै भक्त म बद्ध छू भने ॥
(४९)
ममतामय भङ्ग यो घना
धतुरो मुख्य नाश 'अहम्' पना ।
उपहार दुवै खडा गरेँ
जगदीशान ! म पाउमा परेँ ॥
(५०)
जय नाथ ! शरण्य ! शङ्कर !
जय शम्भो ! शिव ! चन्द्रशेखर !
शरणाऽऽगत 'लेखनाथ' को
प्रभु-बाहेक कहाँ छ नाथ को ?
इति शिवपञ्चाशिका समाप्त