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गयो बहाड वर्षाको, खडा भो रसिलो शरद्। | गयो बहाड वर्षाको, खडा भो रसिलो शरद्। | ||
अर्कै स्वरूपमा निस्क्यो कविको कल्पना जगत्।। | अर्कै स्वरूपमा निस्क्यो कविको कल्पना जगत्।। | ||
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निस्के घनघटा फोरी देखाई भरिलो छवि। | निस्के घनघटा फोरी देखाई भरिलो छवि। | ||
अविद्याजाल तोडेको इलमी राष्ट्र झैं रवि।। | अविद्याजाल तोडेको इलमी राष्ट्र झैं रवि।। | ||
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धेरै कालपछी मिल्दा मित्रदर्शनको सुख। | धेरै कालपछी मिल्दा मित्रदर्शनको सुख। | ||
डुब्यो आनन्दमा लोक लगाई हँसिलो मुख।। | डुब्यो आनन्दमा लोक लगाई हँसिलो मुख।। | ||
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लोकोपकारमा खर्ची अनन्त जलसम्पति। | लोकोपकारमा खर्ची अनन्त जलसम्पति। | ||
मनस्वी धीर झैं मेध बन्यो शान्त मुनिव्रती।। | मनस्वी धीर झैं मेध बन्यो शान्त मुनिव्रती।। | ||
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कहाँ कालो कडा कान्ति, कहाँ गर्जनतर्जन। | कहाँ कालो कडा कान्ति, कहाँ गर्जनतर्जन। | ||
मेघले जलका साथै त्यागेछ सब दुर्गुण।। | मेघले जलका साथै त्यागेछ सब दुर्गुण।। | ||
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परोपकारव्रतले गलेका मेघ पावन। | परोपकारव्रतले गलेका मेघ पावन। | ||
प्रतिपच्चन्द्ररेखा झैं देखिन्छन् मनमोहन।। | प्रतिपच्चन्द्ररेखा झैं देखिन्छन् मनमोहन।। | ||
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Revision as of 08:00, 10 April 2025
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अथ
शरद्-विचार
१
गयो बहाड वर्षाको, खडा भो रसिलो शरद्।
अर्कै स्वरूपमा निस्क्यो कविको कल्पना जगत्।।
२
निस्के घनघटा फोरी देखाई भरिलो छवि।
अविद्याजाल तोडेको इलमी राष्ट्र झैं रवि।।
३
धेरै कालपछी मिल्दा मित्रदर्शनको सुख।
डुब्यो आनन्दमा लोक लगाई हँसिलो मुख।।
४
लोकोपकारमा खर्ची अनन्त जलसम्पति।
मनस्वी धीर झैं मेध बन्यो शान्त मुनिव्रती।।
५
कहाँ कालो कडा कान्ति, कहाँ गर्जनतर्जन।
मेघले जलका साथै त्यागेछ सब दुर्गुण।।
६
परोपकारव्रतले गलेका मेघ पावन।
प्रतिपच्चन्द्ररेखा झैं देखिन्छन् मनमोहन।।