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बिउँझ्यो मृत्तिमूर्छाको अन्त्यमा बासनासरी। | बिउँझ्यो मृत्तिमूर्छाको अन्त्यमा बासनासरी। | ||
धूमधाम उही घाम, उही बाटो कठैबरी।। | धूमधाम उही घाम, उही बाटो कठैबरी।। | ||
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दुःखीका दुःखको याद दैवका मनमा भये। | दुःखीका दुःखको याद दैवका मनमा भये। | ||
त्यो चर्को घामको पर्दा तत्कालै उल्टने थिये।। | त्यो चर्को घामको पर्दा तत्कालै उल्टने थिये।। | ||
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भीष्मसन्तापले पूर्ण शकुनिध्वनिसङ्कुल। | भीष्मसन्तापले पूर्ण शकुनिध्वनिसङ्कुल। | ||
कृष्णकादम्बिनीशून्य जुवा झैं छ नभस्तल।। | कृष्णकादम्बिनीशून्य जुवा झैं छ नभस्तल।। | ||
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कराउँदै घुमेको छ काकाकूल घरीघरी। | कराउँदै घुमेको छ काकाकूल घरीघरी। | ||
कान्ता खोजन निस्केको पान्थको प्राण झैं गरी।। | कान्ता खोजन निस्केको पान्थको प्राण झैं गरी।। | ||
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मेघमार्ग घुमी सारा नपाई मेघदर्शन। | मेघमार्ग घुमी सारा नपाई मेघदर्शन। | ||
त्यो मेघभक्त लाग्यो कि मेघमह्लार गाउन?।। | त्यो मेघभक्त लाग्यो कि मेघमह्लार गाउन?।। | ||
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अथवा त्यो गई माथि विधातासँग शोकको। | अथवा त्यो गई माथि विधातासँग शोकको। | ||
विकराल सबै हाल भन्न लाग्यो कि लोकको?।। | विकराल सबै हाल भन्न लाग्यो कि लोकको?।। | ||
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गम्भीर गगनै यद्वा ठानी स्वर्गीय सागर। | गम्भीर गगनै यद्वा ठानी स्वर्गीय सागर। | ||
पानीखातिर त्यो मानी लम्कँदो छ उँभोतिर।। | पानीखातिर त्यो मानी लम्कँदो छ उँभोतिर।। | ||
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यद्वा विष्णुपदी होलिन् यै विष्णुपदमा भनी। | यद्वा विष्णुपदी होलिन् यै विष्णुपदमा भनी। | ||
घुमी आकाशगङ्गाको गर्छ त्यो उग्र खोजनी।। | घुमी आकाशगङ्गाको गर्छ त्यो उग्र खोजनी।। | ||
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त्यो निराधारमा तेस्तो निकाली करुण स्वर। | त्यो निराधारमा तेस्तो निकाली करुण स्वर। | ||
नत्र त्यो घाममा घुम्दै किन जाला उँभोतिर?।। | नत्र त्यो घाममा घुम्दै किन जाला उँभोतिर?।। | ||
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Revision as of 07:41, 10 April 2025
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४४
बिउँझ्यो मृत्तिमूर्छाको अन्त्यमा बासनासरी।
धूमधाम उही घाम, उही बाटो कठैबरी।।
४५
दुःखीका दुःखको याद दैवका मनमा भये।
त्यो चर्को घामको पर्दा तत्कालै उल्टने थिये।।
४६
भीष्मसन्तापले पूर्ण शकुनिध्वनिसङ्कुल।
कृष्णकादम्बिनीशून्य जुवा झैं छ नभस्तल।।
४७
कराउँदै घुमेको छ काकाकूल घरीघरी।
कान्ता खोजन निस्केको पान्थको प्राण झैं गरी।।
४८
मेघमार्ग घुमी सारा नपाई मेघदर्शन।
त्यो मेघभक्त लाग्यो कि मेघमह्लार गाउन?।।
४९
अथवा त्यो गई माथि विधातासँग शोकको।
विकराल सबै हाल भन्न लाग्यो कि लोकको?।।
५०
गम्भीर गगनै यद्वा ठानी स्वर्गीय सागर।
पानीखातिर त्यो मानी लम्कँदो छ उँभोतिर।।
५१
यद्वा विष्णुपदी होलिन् यै विष्णुपदमा भनी।
घुमी आकाशगङ्गाको गर्छ त्यो उग्र खोजनी।।
५२
त्यो निराधारमा तेस्तो निकाली करुण स्वर।
नत्र त्यो घाममा घुम्दै किन जाला उँभोतिर?।।